Home खण्डन मण्डन हिन्दू धर्म पर लगे वामपंथी आरोपों का उत्तर

हिन्दू धर्म पर लगे वामपंथी आरोपों का उत्तर

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प्रश्न ०५ – ग्रंथों के अनुसार पुराने समय में सभी देवी देवताओं का पृथ्वी पर आना-जाना लगा रहता था, जैसे कि किसी को वरदान देने या किसी पापी का सर्वनाश करने। लेकिन अब ऐसा क्या हुआ जो देवी देवताओं ने पृथ्वी पर आना बंद ही कर दिया ?
उत्तर ०५ – ऐसा नहीं है कि पहले देवगण बराबर पृथ्वी पर आते जाते ही रहते थे। वे तो आवश्यकता के अनुसार ही आवागमन करते हैं। पहले धर्मात्मा अधिक थे, तुम जैसे देश और धर्म के द्रोही कम थे, इसीलिए देवताओं की धर्मसम्मत रीति से उपासना करने वालों की संख्या अधिक होने से देवताओं का वरदान आदि देने के लिए आना जाना अधिक होता था। अब आवश्यकता कम है, तो उस हिसाब से ही आवागमन करते हैं। पहले भी देवताओं का आवागमन होता था तो वे सबको नहीं दिखते थे, अपितु जिससे कार्य है, उसी के सामने प्रकट होते थे, आज भी वे जब आते हैं तो केवल विशेष व्यक्तियों को ही दर्शन मिलता है, सार्वजनिक रूप से सबके सामने नहीं आते हैं।
न देवा यष्टि(दण्ड)मादाय रक्षन्ति पशुपालवत्।
यं तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्ध्या संविभजन्ति तम्॥
(महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय – ३५, श्लोक – ३३)
देवता लाठी लेकर किसी की रक्षा नहीं करते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे सद्बुद्धि से युक्त कर देते हैं। (उसी प्रकार जिसे नष्ट करना चाहते हैं, उसे दुर्बुद्धि दे देते हैं। रावण, दुर्योधन, कंस आदि के नाश का प्रारम्भ उनकी दुर्बुद्धि से ही हुआ)
प्रश्न ०६ – जब भी कोई पापी पाप फैलाता था, तो उसका नाश करने के लिये खुद भगवान् किसी राजा के यहां जन्म लेते थे। फिर 30-35 की उम्र तक जवान होने के बाद वो पापी का नाश करते थे, ऐसा क्यों ? पापी का नाश जब भगवान खुद ही कर रहे है तो 30-35 साल का इतना ज्यादा वक्त क्यों ? भगवान सीधे कुछ क्यों नहीं करते, जिस प्रकार उन्होंने अपने खुद के ही भक्तों का उत्तराखण्ड में नाश किया ?
उत्तर ०६ – इस प्रश्न से ही यह स्पष्ट है कि प्रश्नकर्ता केवल निजी द्वेष से प्रश्न कर रहा है, न कि किसी जिज्ञासा से। साथ ही उसने कभी धर्मग्रंथों का मुख्यपृष्ठ भी नहीं देखा है तभी ऐसे प्रश्न कर रहा है। तीन चरणों में इसका उत्तर देता हूँ।
१) भगवान् “जब भी कोई पापी पाप करता है”, तब अवतार ले लेते हैं ऐसा नहीं है। पापियों को दण्ड देने के लिए उन्होंने शासन एवं राजा की व्यवस्था की है।
गुरुरात्मवतां शास्ता राजा शास्ता दुरात्मनाम् ।
इह प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥
गरुडपुराण, प्रेतकाण्ड (धर्मकाण्ड), अध्याय – ४६, श्लोक – ०८)
आत्मतत्व के जिज्ञासु पर उनका गुरु शासन करता है, अनुचित आचरण करने वालों पर राजा शासन करता है (उन्हें नियंत्रित करता है चाहे वे बात से समझें, या लात से)। जो लोग यहां पर राजा की दृष्टि से छिपकर पाप करते हैं, उनपर सूर्यपुत्र यमराज शासन करते हैं। यही मत स्कन्दपुराण, महाभारत, नारदस्मृति, आदि का भी है।
पापियों को दण्ड देने का काम पहले तो राजा का है, फिर यमराज का है। यदि कोई व्यक्ति वरदान आदि के दुरुपयोग से अत्यंत प्रबल हो जाए, उसकी नकारात्मक शक्तियों को नष्ट करने में राजा आदि लौकिक शासक एवं यमराज आदि दिव्य शासक भी समर्थ न हो सकें, तब ऐसी स्थिति में, देवताओं एवं भक्तों की विशेष प्रार्थना पर ही भगवान् अवतार ग्रहण करते हैं। अथवा स्थितिभेद से यदि किसी व्यक्ति को दण्डस्वरूप राक्षस, वृक्ष, शिला या पशु आदि होने का श्राप मिला हो एवं उसका उद्धार केवल भगवान् के ही द्वारा निश्चित किया गया हो, तभी भगवान् के अवतार लेते हैं।
२) भगवान् बिना अवतार लिए ही दुष्टों का संहार कर सकते हैं, जैसा कि उन्होंने सुमाली, मधु, कैटभ आदि कई दैत्यों को बिना किसी अवतार के ही सीधे देवासुरसंग्राम आदि के अवसरों पर मारा था। हां, यदि विशेषरूप से अवतार लिया हो तो भी सदैव ३०-३५ वर्ष की आयु तक प्रतीक्षा नहीं करते हैं। श्रीकृष्ण के रूप में भगवान् ने कुछ दिनों की आयु से ही राक्षसों का संहार प्रारम्भ कर दिया था। दस वर्ष की भौतिक आयु तक वे पूतना, तृणावर्त, अघासुर, बकासुर आदि अनेकानेक राक्षसों का शमन कर चुके थे। श्रीराम के रूप में भी भगवान् ने ताड़का आदि का संहार चौदह वर्ष की आयु में ही किया था। भुशुण्डि महारामायण में तो ब्रह्माजी ने श्रीरामावतार के कई बाललीलाओं का वर्णन करते हुए भगवान् श्रीराम ने अत्यंत बाल्यकाल में ही जिन राक्षसों का वध किया है, उनके नाम और घटनाओं का वर्णन किया है।
३) भगवान् कई बार संसार में लम्बा समय इसीलिए व्यतीत करते हैं क्योंकि उनका कार्य केवल अधर्मियों का नाश करने का ही नहीं है, अपितु धर्ममार्ग की स्थापना करने का भी है। स्वयं श्रीहनुमान् जी प्रभु श्रीराम जी उपासना करते हुए कहते हैं कि – हे प्रभो ! आपकी यह जो लीला है, यह जो अवतार है, वह केवल राक्षसों के वध के लिए नहीं है। वह मनुष्यरूप में इसीलिए है, ताकि मानवीय आदर्शों का आचरण करते हुए आप मनुष्यों को उसी आदर्श की शिक्षा दें।
मर्त्यावतारस्त्विह मर्त्यशिक्षणम्
रक्षोवधायैव न केवलं विभो:
(श्रीमद्भागवत महापुराण, पञ्चम स्कंध, अध्याय – १९, श्लोकार्द्ध – ०५)
इसीलिए भगवान् की लीलाओं में दिव्य एवं प्राकृत दोनों गुणों को समयानुसार जोड़कर उसका रहस्य समझना चाहिए, कि कहां उन्होंने दिव्य व्यवहार किया है, एवं कहाँ मानवों के समान प्राकृत व्यवहार किया है, अन्यथा सदैव उलझे ही रहेंगे।
उत्तराखण्ड आदि की घटनाओं में सर्वथा मनुष्य का स्वार्थ ही जिम्मेदार है। प्रकृति तो ये सब चेतावनी देती है, स्वार्थी अधर्मपरक, तुम जैसे लोग ही नहीं समझते। नदियों को अप्राकृतिक रूप से अवरुद्ध करोगे, वृक्षों एवं वन्य प्राणियों का अंधाधुंध विनाश करोगे, प्राकृतिक संसाधनों, खनिजों का दोहन करोगे, मोबाइल विकिरण, परमाणु परीक्षण, भीषण युद्ध आदि के माध्यम से जलवायु को विकृत करोगे, तीर्थस्थलों की मर्यादा भंग करके उन्हें मनोरंजन और होटलबाजी का माध्यम बना दोगे, देवता, विप्र, गौ, स्त्री, बालक, अनाथ एवं असहायों पर अत्याचार करोगे, और जब प्रकृति उसका दण्ड देगी तो कहते हो कि भगवान् गलत हैं ?