Home इतिहास पुराण क्या है ज्ञानवापी और काशी विश्वनाथ का रहस्य ?

क्या है ज्ञानवापी और काशी विश्वनाथ का रहस्य ?

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भगवान् ईशान रुद्र, महादेव के पांचवें वक्त्रांश हैं। वे पांचवें सिंहासन के अधिपति भी हैं। अतः ज्ञानसिंहासनसीन भगवान् ईशान ने काशी में ज्ञानमण्डप के समीप ज्ञानवापी का निर्माण करके अज्ञान को दूर करने की कृपा की है, ऐसा परम्परा से ज्ञात होता है। इसके अतिरिक्त कलावती का उपाख्यान भी द्रष्टव्य है। पण्डित हरिस्वामी और उनकी पत्नी प्रियंवदा की पुत्री सुशीला का अपहरण करने की चेष्टा एक विद्याधर ने की थी जिसके बाद एक राक्षस से हुए युद्ध में उसका प्राणान्त हो गया। कालान्तर में वह कन्या कर्णाटक की राजकुमारी बनी और बाद में जब काशी आयी तो भगवान् विश्वेश्वर के दक्षिणभाग में स्थित दण्डनायक के द्वारा रक्षित ज्ञानवापी के जल का सेवन करने से उसे अपने पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ और फिर तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके वह मुक्त हो गयी। भगवान् स्कन्द बताते हैं कि यह कोई कल्पना नहीं, अपितु हमारे देश का प्राचीन इतिहास है। यह प्रसङ्ग बहुत बड़ा है अतः आवश्यक श्लोकों का दर्शन कराया जाता है –

स्कन्द उवाच
कलशोद्भव चित्रार्थमितिहासं पुरातनम्।
ज्ञानवाप्यां हि यद्वृत्तं तदाख्यामि निशामय॥
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कलावती चित्रपटीं पश्यन्तीत्थं मुहुर्मुहुः।
ज्ञानवापीं ददर्शाथ श्रीविश्वेश्वरदक्षिणे॥
यदम्बु सततं रक्षेद्दुर्वृत्ताद्दण्डनायकः।
सम्भ्रमो विभ्रमश्चासौ दत्त्वा भ्रान्तिं गरीयसीम्॥
योऽष्टमूर्तिर्महादेवः पुराणे परिपठ्यते।
तस्यैषाम्बुमयी मूर्तिर्ज्ञानदा ज्ञानवापिका॥
नेत्रयोरतिथीकृत्य ज्ञानवापी कलावती।
कदम्बकुसुमाकारां बभार क्षणतस्तनुम्॥
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कलावत्युवाच
एतस्माज्जन्मनः पूर्वमहं ब्राह्मणकन्यका॥
उपविश्वेश्वरं काश्यां ज्ञानवाप्यां रमे मुदा।
जनको मे हरिस्वामी जनयित्री प्रियंवदा॥
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कर्णाटनृपतेः कन्या बभूवाहं कलावती।
इति ज्ञानं ममोद्भूतं ज्ञानवापीक्षणात्क्षणात्।
इति तस्या वचः श्रुत्वा सापि बुद्धिशरीरिणी॥
ताश्च तत्परिचारिण्यः प्रहृष्टास्यास्तदाऽभवन्।
प्रोचुस्तां प्रणिपत्याथ पुण्यशीलां कलावतीम्॥
अहो कथं हि सा लभ्या यत्प्रभावोयमीदृशः।
धिग्जन्म तेषां मर्त्येऽस्मिन्यैर्नैक्षि ज्ञानवापिका॥
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तदा प्रभृति लोकेऽत्र ज्ञानवापी विशिष्यते।
सर्वेभ्यस्तीर्थर्मुख्येभ्यः प्रत्यक्षज्ञानदा मुने॥
सर्वज्ञानमयी चैषा सर्वलिङ्गमयी शुभा।
साक्षाच्छिवमयी मूर्तिर्ज्ञानकृज्ज्ञानवापिका॥
सन्ति तीर्थान्यनेकानि सद्यः शुचिकराण्यपि।
परन्तु ज्ञानवाप्या हि कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
ज्ञानवाप्याः समुत्पत्तिं यः श्रोष्यति समाहितः।
न तस्य ज्ञानविभ्रंशो मरणे जायते क्वचित्॥
महाख्यानमिदं पुण्यं महापातकनाशनम्।
महादेवस्य गौर्याश्च महाप्रीतिविवर्धनम्॥
पठित्वा पाठयित्वा वा श्रुत्वा वा श्रद्धयान्वितः।
ज्ञानवाप्याः शुभाख्यानं शिवलोके महीयते॥
(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय – ३४ एवं ३५ से उद्धृत)