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पुराणों के सन्दिग्ध विषयों पर प्रश्नोत्तर

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प्रश्नकर्ता सत्यम् शर्मा – गुरुदेव प्रणाम ! विष्णु पुराण पढ़ रहा था जिसमें गोवर्धन धारण के प्रसंग में श्लोक संख्या ३८-४४ में पशु बलि और मांस आदि से पूजा करने का वर्णन है। कृपया मार्गदर्शन करें ।

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – त्रिविधा भवति श्रद्धा। तीनों गुणों से युक्त श्रद्धा से अर्चना होती है। जिसके जैसे संस्कार होते हैं, वैसे ही गुणों वाली श्रद्धा से वह अर्चना करता है। ब्रजमंडल में सभी सात्विक ही हों, आवश्यक तो नहीं। तीनों विकल्प थे, जिसको जिसमें रुचि लगी, उसने वैसा किया।

प्रश्नकर्ता रंगराज नम्बी – जय श्री कृष्ण स्वामी जी। 🙏

कुछ अनार्य समाजी आदि भ्रष्ट लोग मत्स्यपुराण के इन श्लोकों को अंग्रेजी अनुवाद सहित डालकर आक्षेप कर रहे हैं कि पौराणिक पण्डे वेश्यागामी थे, इसलिए पुराणों में यह सब जोड़ दिया। हमें लगता है कि ब्राह्मण तो अनेक प्रकार के होते हैं, आचारभेद से भी और विप्र, पतित आदि भेदों से भी। कृपया आप मार्गदर्शन कीजिये।

ततः प्रभृति यो विप्रो रत्यर्थं गृहमागतः।
स मान्यः सूर्यवारे च स मन्तव्यो भवेत् तदा ॥
एवं त्रयोदशं यावन्मासमेवं द्विजोत्तमान्।
तर्पयेत यथाकामं प्रोषितेऽन्यं समाचरेत्॥
तदनुज्ञया रूपवान् यावदभ्यागतो भवेत्।
आत्मनोऽपि यथाविघ्नं गर्भभूतिकरं प्रियम्॥
दैवं वा मानुषं वा स्यादनुरागेण वा ततः।
साचारानष्टपञ्चाशद् यथाशक्त्या समाचरेत्॥

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – श्रीमन्नारायण। ये किसने बताया है ? इन्द्र ने दानव स्त्रियों के लिए बताया है।  दानवों में व्यभिचार सामान्य बात है। और किनके लिए बताया है ? वेश्याओं के लिए बताया है। जो कुलानुगत रूप से वेश्या हैं, उस वृत्ति से इतर नहीं हो सकती हैं, परिसंख्या विधि से वे भी अनुष्ठान आदि करके अपने किल्विष से मुक्त हो, अगले जन्म में श्रेष्ठ कुल में जाएं, इस हेतु। प्रत्येक ब्राह्मण के लिए यह अनुष्ठान उत्तम और अनिवार्य तो नहीं बताया है न। अधर्म जब व्यक्ति से न छूट सके तो उसे एक निश्चित मात्रा और विधि से बांधकर धीरे धीरे नियंत्रित उपरति कराना परिसंख्या विधि है। वेश्यावृत्ति में लिप्त जनों के लिए श्रुतिसम्मत विधान का अधिकार नहीं है, ऐसे में उनके द्वारा भी यजन पूजन सम्पन्न हो सके, एतदर्थ अनङ्गदान व्रत आदि का विधान बताया।

प्रश्नकर्ता आचार्य कौशलेन्द्रकृष्ण – प्रभु! जन्तुओं को मुक्ति (जन्म मृत्यु के चक्र से) की प्राप्ति कैसे होती है? जहाँ तक हम समझते हैं कि पापाधिक्य से जन्तुयोनि मिलती है, पाप पुण्य के सम होने से मानव योनि। मानव योनि के उपरान्त ही जीव की मुक्ति सम्भव है, या ईश्वर अनुग्रह से। तो ईश्वर अनुग्रह प्राप्त तथा विलक्षण जीवों को यदि इस श्रेणी में न लें तब तो जीव की मुक्ति मानवीय सोपान के उपरान्त ही होगी। कृपया प्रकाशित करें।

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – मानवीय योनि एक अर्हता है, निश्चिता नहीं। आप परीक्षा में बैठने के लिए अधिकृत हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि आप उसमें उत्तीर्ण भी हो जाएंगे। अन्य योनियों में परीक्षा में बैठने की योग्यता ही नहीं। यदि तीर्थबल, नामबल आदि से कुछ हो जाये तो अलग बात। मनुष्य परीक्षा में बैठने योग्य है, उत्तीर्ण होना लक्षण पर है। गीता के सातवें अध्याय में मनुष्याणां सहस्रेषु वाला श्लोक देखें।

प्रश्नकर्ता केशव अरोड़ा – प्रणाम! फेसबुक पर कुछ पण्डितों का कहना है कि विवाह में ४ फेरों का ही वैदिक विधान है न कि ७ फेरों का। मेरे यहां चार पांच पीढ़ियों से ७ फेरे चलते आए हैं। प्रभु! यदि समय हो इस विषय पर भी प्रकाश डालें।

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – उनका कहना सर्वथा सही है। वेदोक्त विधान और गृह्यसूत्रों में चार का ही विधान है। चार फेरे, साथ वचन और सात पद। यही विधान है। यह वेदाचार है। आचार के चार भेद हैं – वेदाचार, देशाचार, लोकाचार, कुलाचार। जैसे बंगाल में स्त्री का शंख वादन उनका देशाचार है। कुलाचार और लोकाचार में कहीं कहीं सात फेरे होते हैं, अब फिल्मों के प्रभाव से लगभग सर्वत्र ही सात फेरे होने लगे हैं। किन्तु वेदोक्त मन्त्रपूर्वक तो चार फेरे ही विहित हैं। विवाद से बचने के लिए शेष तीन लेना हो तो बिना मन्त्र के ले सकते हैं किन्तु उसकी धार्मिक मान्यता नहीं है। लेकिन ऐसा करने से इस भ्रम को और बल ही मिलेगा।

प्रश्नकर्ता दशरथ प्रसाद सिंह – गुरुजी ! क्या महारास में भी गोपियों के साथ शारीरिक संभोग हुआ था? पर अन्य विद्वान कहते हैं कि कृष्ण की आयु बालक की थी अतएव संभोग नहीं हुआ। सत्य क्या है, शास्त्रों के अनुसार ?

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु – सम्भोग का अर्थ यदि गर्भाधान है, तो उसका स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता। यदि उसका अर्थ प्रेमालाप और आंशिक रतिक्रीड़ा है तो उसका वर्णन मिलता है। भगवान की शक्ति अवस्थातीत है। वे गोवर्धन उठाने का सामर्थ्य रखते हैं तो रतिक्रीड़ा का क्यों नहीं ? और गोपियों ने कात्यायनी व्रत के माध्यम से उन्हें पतिरूप में ही पाने का वर मांगा था। हां, पूर्ण गर्भाधानपूर्वक सम्भोग का वर्णन नहीं है।

जो व्यक्ति यह कहते हैं कि मेरा शरीर, मैं चाहे जैसे कपड़े पहनूँ … मेरा शरीर, मैं चाहे जो खाऊं … मेरा शरीर, मैं चाहे जिससे शारीरिक सम्बन्ध बनाऊं, आदि आदि अमर्यादित उच्छृंखलता की बातें करते हैं … हमें इसका अधिकार चाहिए, हम ये नहीं मानते, वो नहीं मानते, आदि आदि कहते हैं, यही व्यक्ति हमारे शास्त्रों में वर्णित कथानकों में आपत्ति करते हुए कहते हैं कि राम ने ऐसा क्यों किया, कृष्ण ने ऐसा क्यों किया। ये स्वयं की इच्छा से प्रकृति के एक अणु के भी नैसर्गिक व्यवहार पर नियन्त्रण नहीं कर सकते किन्तु प्रकृतिनियन्ता ब्रह्म की लीलाओं को अपनी अपेक्षा के अनुसार नचाना चाहते हैं। यदि आपका शरीर, आपकी इच्छा, आपकी स्वतन्त्रता है तो राम और कृष्ण ने जो किया, वो उनका शरीर, उनकी इच्छा, उनकी स्वतन्त्रता है। यदि आप फ्री सेक्स को प्रगतिशील और निजी स्वतन्त्रता का विषय मानते हैं तो परम जड़बुद्धि से ही देखने पर आपको कृष्णचरित्र की (यद्यपि वह भौतिक काम नहीं, फिर भी) रासलीला को भी प्रगतिशील ही मानना चाहिए, उस पर आक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं।

जो कर्मबद्ध लोग जीवन में उच्छृंखल और अनुशासनहीन हैं, वे कर्मातीत ईश्वरीय लीलाओं पर उपहास करते हैं जबकि जो कर्मबद्ध लोग जीवन में शास्त्रोचित अनुशासन का पालन करते हैं, वे कर्मातीत ईश्वरीय लीलाओं को ब्रह्म का लोकवैभव समझकर नमन करते हैं। आधुनिक भौतिकवादियों को अपने लिए सभी प्रकार की अनुशासनहीनता चाहिए किन्तु ये चाहते हैं कि हमारे आराध्य इनकी अपेक्षाओं के अनुसार चलें। अच्छा, ये केवल हमारे आराध्यों के ही विषय में आक्षेप करते हैं, अन्य मतों की ओर ये देखते भी नहीं, जबकि उनके आदर्श जो कुकृत्य कर गए, उसका समर्थन और प्रयोग आज भी पर्याप्त बाहुल्य में देखने को मिलता है। यद्यपि मैं अपने वक्तव्य एवं लेखों में बलरामजी के वारुणी सेवन एवं श्रीकृष्ण की रासलीला का स्पष्टीकरण दे चुका हूँ किन्तु क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि अपने लिए फ्री सेक्स और फ्री बूज़ का नारा लगाने वाले ये भौतिकवादी इन्हीं से सम्बन्धित विषयों के लेकर हमारे शास्त्रों पर आक्षेप करते हैं। फ्री पॉर्न का समर्थन करने वाले किस मुंह से कहते हैं कि पुराणों में अश्लीलता है ? जो जीवन में शास्त्राचार से रहित हैं, अश्रद्धा और असूया से ग्रस्त हैं, वे ईश्वरीय कृत्यों को तत्त्वतः वैसे ही नहीं समझ सकते जैसे कोई व्यक्ति पैदल चलकर समुद्र के पार नहीं जा सकता।

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु