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भारत में दासप्रथा का सत्य

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भारतीय समाज में दास-दासियों को अपने परिवार के सदस्य की तरह रखा जाता था, आज भी बहुत से धर्मनिष्ठ घरों के लोग अपने नौकरों के साथ परिवार जैसा ही व्यवहार करते हैं। यही कारण है कि दास के मरने पर स्वामी को, और स्वामी के मरने पर दास को भी परिवार वालों की ही भांति सूतक लगता है। पहले पुत्री के विवाह के बाद भी (आधुनिक शब्द में दहेज आदि के रूप में) दास दासियाँ भेंट की जाती थीं, उनपर भी स्वामिनी के मरने पर परिवार वालों के ही समान अशौच एवं शुद्धि आदि लागू होते थे।

मृतसूते तु दासीनां पत्नीनां चानुलोमिनाम्।
स्वामितुल्यं भवेच्छौचं मृते स्वामिनि यौनिकम्/यौतुकम्॥
(देवलस्मृति) (ऐसा ही मत विष्णुधर्मोत्तरपुराण का भी है)

महारानी चित्रांगदा के वचन का उदाहरण देते हुए महर्षि और्व उपदेश देते हैं –

अनाथस्य नृपो नाथो ह्यभर्तुः पार्थिवः पतिः।
अभृत्यस्य नृपो भृत्यो नृप एव नृणां सखा।
(कालिका पुराण, अध्याय – ५१, श्लोक – ३१)

जिसका कोई स्वामी नहीं है, उसका स्वामी राजा होता है। जिसका भरण पोषण करने वाला कोई नहीं होता, उसका भरण पोषण राजा करता है। जिसका कोई सेवक नहीं होता, उसकी सेवा राजा करता है, एवं मनुष्यों का मित्र राजा ही होता है। (तात्पर्य है कि राजा को स्वामित्व, भरण पोषण, सेवा और मित्रता, हर प्रकार से प्रजा का पालन करना चाहिए)

क्या विदेशी राजतंत्र अथवा स्लेवरी, गुलामी में ऐसी बात की कल्पना भी की जा सकती है ? उससे भी पहले का वाक्य देखें –

अपुत्रस्य नृपः पुत्रो निर्धनस्य धनं नृपः।
अमातुर्जननी राजा ह्यतातस्य पिता नृप:॥
(कालिका पुराण, अध्याय – ५१, श्लोक – ३०)

जिसका कोई पुत्र नहीं, उसका पुत्र राजा होता है, जिसके पास कोई धन नहीं, उसका धन राजा होता है, जिसकी कोई माता नहीं, राजा उसकी माता है एवं जिनके पिता नहीं हैं, राजा ही उनका पिता होता है। (तात्पर्य यह है कि पुत्र बनकर, आर्थिक बल बनकर, माता और पिता के समान कर्तव्य निभाते हुए एक राजा अपनी प्रजा का पालन करे)

अनुरूपाणि कर्माणि भृत्येभ्यो यः प्रयच्छति।
स भृत्यगुणसंपन्नं राजा फलमुपाश्नुते॥
(महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय – ११९, श्लोक – ०४)

जो अपने भृत्यों को उनके (क्षमता के) अनुरूप कार्यों में लगाता है, वह राजा भृत्य के गुण से सम्पन्न फल को प्राप्त करता है।

स्वयं राजा दशरथ के दिवंगत होने पर भगवान् श्रीराम भरतलाल जी को आश्वासन देते हुए कहते हैं –

भृत्यानां भरणात् सम्यक् प्रजानां परिपालनात् ।
अर्थादानाच्च धर्मेण पिता नस्त्रिदिवं गत:॥
(वाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकाण्ड, अध्याय – १०५, श्लोक – ३३)

भृत्यों के भली प्रकार भरण पोषण से, प्रजा का अच्छे से पालन करने से और सार्थक दान आदि से अर्जित धर्म के कारण हमलोगों के पिता स्वर्ग गए हैं।

किन कर्मों से व्यक्ति स्वयं स्वर्ग जाता है, इसका एक उदाहरण देखें –

परपीडामकुर्वन्तो भृत्यानां भरणादिकम्।
कुर्वन्ति ते सुखं यान्ति विमानैः कनकोज्ज्वलैः॥
(ब्रह्मपुराण, अध्याय २१६, श्लोक – ५९)

दूसरों को कष्ट न पहुंचाते हुए, अपने भृत्यों का भरण पोषण करते हुए, व्यक्ति स्वर्ण के समान देदीप्यमान विमानों के माध्यम से स्वर्गलोक को जाता है।

ऐसा नहीं है कि सनातनी शास्त्र केवल यह कहते हैं कि पुरुषों को ही अपने दासों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, अपितु यही नियम स्त्रियों के लिए भी है। ब्रह्माजी कहते हैं –

एवमाराध्य भर्तारं तत्कार्येष्वप्रमादिनी।
पूज्यानां पूजने नित्यं भृत्यानां भरणेषु च॥
गुणानामर्जने नित्यं शीलवत्परिरक्षणे।
प्रेत्य चेह च निर्द्वन्द्वं सुखमाप्नोत्यनुत्तमम्॥
(भविष्य पुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय – १४, श्लोक – ३१-३२)

इस प्रकार पति की आराधना करके, उनके कार्यों में आलस्य न करते हुए, पूजनीय व्यक्तियों (या देवताओं का) पूजन करते हुए, भृत्यों का भरण पोषण करते हुए, अपने गुणों का संग्रह और शील (चरित्र, सदाचरण) के समान रक्षा करते हुए, वह (स्त्री) यहां भी सुखी रहती है और मरने के बाद भी दिव्य सुख को प्राप्त करती है।

विदेशों में बड़े बड़े राजा भी गुलामों के साथ जिस क्रूर कार्य को करने में, “यह पाप है”, ऐसी सामान्य मानवीय बुद्धि तक नहीं रखते थे, उनसे श्रेष्ठ बुद्धि तो हमारे यहां सनातन धर्म की मर्यादा के अनुसार रहने वाले चाण्डालों की होती थी। भारत के चाण्डाल भी, विदेशी क्रूरकर्मा राजाओं की तुलना में अधिक सभ्य थे।

अवन्ती नाम नगरी बभूव भुवि विश्रुता।
तत्राऽऽस्ते भगवान्विष्णुः शङ्खचक्रगदाधरः॥
तस्या नगर्याः पर्यन्ते चाण्डालो गीतिकोविदः।
सद्‌वृत्त्योत्पादितधनो भृत्यानां भरणे रतः॥
(ब्रह्मपुराण, अध्याय – २२८, श्लोक – ०८-०९)

अवन्ती नामक प्रसिद्ध नगरी, जहां शंख, चक्र और गदाधारी भगवान् विष्णु का वास है, उस नगरी के किनारे संगीत में कुशल एक चाण्डाल रहता था, जो अच्छे कर्मों के द्वारा धन कमाता था एवं अपने भृत्यों का भरण पोषण करता था।

धर्मशास्त्रों के उपदेष्टा ऋषिगण भी इस मर्यादा का पालन करते थे। आचार्य मेधातिथि कहते हैं –

बंधूनां सुहृदां चैव भृत्यानां स्त्रीजनस्य च॥
अव्यक्तेष्वपराधेषु चिरकारी प्रशस्यते॥
(स्कन्दपुराण, माहेश्वर-कौमारिकाखण्ड, अध्याय ०६, श्लोक – १२६)

अपने सगे सम्बन्धी, शुभचिंतक, भृत्य (दास या सेवक) एवं स्त्रियों पर किसी अपराध का संदेह हो (बिना प्रमाण के ही, केवल आशंका हो) तो उनपर क्रोध करने में देरी करने वाला व्यक्ति प्रशंसनीय है।

निंदनीय कर्मों में, जिन्हें करने से पाप की प्राप्ति होती है, उनके वर्णन का एक उदाहरण देखें –

भृत्यानां च परित्यागः साधुबंधुतपस्विनाम्॥
गवां क्षत्रियवैश्यानां स्त्रीशूद्राणां च ताडनम्॥
यो भार्यापुत्रमित्राणि बालवृद्धकृशातुरान्॥
भृत्यानतिथिबंधूंश्च त्यक्त्वाश्नाति बुभुक्षितान्॥

(स्कन्दपुराण माहेश्वर-कौमारिकाखण्ड, अध्याय – ४१, श्लोक ४७ एवं ६७)

अपने भृत्यों के परित्याग से पाप लगता है, साधु, कुटुम्बी, तपस्वी, गाय, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र आदि को मारने से पाप लगता है। जो व्यक्ति अपनी पत्नी, पुत्र, मित्र, अन्य बालक, वृद्ध, दुर्बल, मरणासन्न, भृत्य (दास या सेवक), अतिथि एवं कुटुम्बी आदि भूखे व्यक्तियों को छोड़कर स्वयं भोजन करता है ( उसे भी पाप लगता है)

क्या आप सोच सकते हैं कि जहां छोटे गुलाम बच्चों को पीट पीट कर मार डाला जाता था, जहां उन्हें काम का वेतन भी नहीं मिलता था, बच्चियों पर बलात्कार होते थे और शिकायत करने पर उन्हें मृत्यु मिलती थी, वहां ऐसी उदारता सम्भव है ? नहीं, यह उदारता तो केवल भारत में ही संभव है। ऐसे ही महाभारत में जिस पुण्य के बल पर व्यक्ति बड़े बड़े संकटों को भी पार कर जाता है, उनके वर्णन का एक उदाहरण देखें –

ये क्रोधं संनियच्छन्ति क्रुद्धान्संशमयन्ति च।
न च रुष्यन्ति भृत्यानां दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥
(महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय – ११०, श्लोक – २१)

जो व्यक्ति अपने क्रोध को नियंत्रित रखता है और दूसरे के क्रोध को भी शांत करता है, जो अपने भृत्यों (दासों एवं सेवकों) पर क्रोधित नहीं होता, वह व्यक्ति बड़े बड़े संकटों को भी पार कर जाता है।

यह बात अवश्य है, कि स्वामी एवं दास के मध्य एक सन्तुलित मर्यादा होनी चाहिए। स्वामी के किये दास पर क्रोध करना, उसे पीटना आदि अधर्म है, इस बात का अनुचित लाभ न उठाया जा सके, इसलिए एक व्यवहार की और भी मर्यादा बताई गई है।

सम्प्रहासश्च भृत्येषु न कर्तव्यो नराधिपैः।
लघुत्वं चैव प्राप्नोति आज्ञा चास्य निवर्तते॥
भृत्यानां सम्प्रहासेन पार्थिवः परिभूयते।
अयाच्यानि च याचन्ति अवक्तव्यं ब्रुवन्ति च॥
पूर्वमप्यर्पितैर्लोभैः परितोषं न यान्ति ते।
तस्माद्भृत्येषु नृपतिः सम्प्रहासं विवर्जयेत्॥
(महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय – २१५, श्लोक – २१-२३)

अपने सेवकों से राजा (सामान्य सन्दर्भ में कोई भी स्वामी) हंसी मजाक न करे। इससे उसका महत्व घटता है और उनकी आज्ञा भी टाली जाने लगती है। जब राजा अपने भृत्यों के साथ हंसी ठिठोली करने लगता है, तब वे लोग अनुचित वस्तुओं की मांग करने लगते हैं, अनुचित वचन बोलने लगते हैं। पहले के लोभ के कारण उन्हें संतोष नहीं होता, इसीलिए राजा अपने दासों से हास परिहास न करे।

हां, इसका अर्थ नहीं है कि हंसी करने मना किया है तो राजा अत्याचार करने लगेगा। उसका भी निषेध है। साथ ही राजा को सदैव अपने राजकोष की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहने की बात नीति कहती है।

धर्महेतोः सुखार्थाय भृत्यानां भरणाय च।
आपदर्थञ्च संरक्ष्यः कोषः कोषवता सदा॥
(वाचस्पत्यम् में ग्रंथान्तर)

धर्मपालन के लिए, सुखप्राप्ति के लिए, अपने भृत्यों के भरण पोषण के लिए एवं आपत्तिकाल में काम आने के लिए कोषपति, अपने खजाने की रक्षा करे।

हमारे यहां तो दासों के साथ जो नियमभेद हैं सो तो समझ ही रहे हैं, किन्तु विदेश में तो दास थे नहीं, वहां तो स्लेव और गुलाम आदि थे। उन्हें वेतन भी नहीं मिलता था, जबकि दास शब्द की परिभाषा ही उसे वेतन और उसमें समयानुसार वृद्धि का अधिकार देती है। गुलामों साथ ऐसा आदर्श व्यवहार होता नहीं है, किन्तु भारत में दासों के लिए जो नियम मैंने अभी तक बताए, उनका पालन राक्षसों के यहां भी होता था। जहां म्लेच्छ देश में बड़े बड़े लोगों के गुलाम भी अत्यंत दीन हीन अवस्था में रहते थे, वहीं भारत में या सनातन मर्यादा के राक्षसों तक में दास दासियों को पर्याप्त आभूषण आदि दिए जाते थे। एक उदाहरण देखें, जो रावण सीताजी से कह रहा है –

पंच दास्यः सहस्राणि सर्वाभरणभूषिताः।
सीते परिचरिष्यन्ति भार्या भवसि मे यदि॥
(वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकाण्ड, अध्याय – ४७, श्लोक – ३१)

हे सीते ! यदि तुम मेरी (रावण की) पत्नी बन जाती हो तो सभी प्रकार के आभूषणों से सजी हुई पांच हज़ार दासियाँ तुम्हारी सेवा करेंगी।

विदेशों में गुलामों के साथ जैसी क्रूरता होती थी, उससे कई गुणा अच्छा व्यवहार हमारे यहां के राक्षस अपने दास दासियों से करते थे।

यज्ञ में, विवाह में, उत्सव आदि में जब दास दासियों को दान दिया जाता था तो वे सुंदर सुंदर वस्त्र, मणि, आभूषण, सोने चांदी से सुशोभित रहती थीं, उनकी जीवनशैली का स्तर श्रेष्ठ था। बलराम जी के विवाह का, अथवा राजाओं के यज्ञादि के एक दो उदाहरण देखें –

विचित्रतरवर्णादि नानाभूषणभूषिताः ।
दास्यः शतसहस्रं च दासाश्च सुमनोरमाः॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड,अध्याय – ०२९, श्लोक – ०६)
तथा
दशलक्षं तुरङ्गाणां रथानां लक्षमेव च।
रत्नालंकारयुक्तानां दासीनां चापि लक्षकम्॥

(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय – १०६, श्लोक – ०५)

सनातनी व्यवस्था में रहने वाले ऋषि हों, राजा हों, व्यापारी हों, चाण्डाल, राक्षस या वेश्या हों, सभी अपने दासों के साथ पुत्रवत् ही व्यवहार करते थे। शेष का उदाहरण तो दे चुका हूँ, एक वेश्या का उदाहरण भी देखें। मोहिनी नाम की वेश्या ने वृद्धावस्था में अपने कल्याण के लिए पूर्वकृत पापों का प्रायश्चित्त करने के उद्देश्य से सोचा कि सब धन सामग्री आदि ब्राह्मणों को दान करके वन में जाकर तपस्या करूँ।

श्रोत्रियेभ्यो ददाम्येतज्ज्ञानेनेति व्यचिंतयत्।
विचिंत्येति समाहूता मोहिन्या नगरद्विजाः॥
नागतास्ते महीपाल ज्ञात्वा घोरं प्रतिग्रहम्।
यदा तदा द्विभागं च चक्रे तत्तु धनं स्वकम्॥
एको भागस्तु दासीनां दत्तोन्यश्च विदेशिनाम्।
स्वयं तु निर्द्धना राजन्नभवत्सा तु मोहिनी॥
तथा समागतं मृत्युं विज्ञायांतिकमंतिके।
मुक्त्वा दास्यो धनं नीत्वा यथेष्टगतयोऽभवत्॥

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय – २२०, श्लोक – ३१-३४)

मैं वेदज्ञानसम्पन्न ब्राह्मणों को धन का दान कर दूंगी, ऐसा विवेकपूर्ण निर्णय लेकर मोहिनी ने नगर के ब्राह्मणों को निमंत्रण दिया। किन्तु, वेश्या के धन का दान लेने से घोर प्रतिग्रह दोष लगेगा, यह सोचकर कोई भी ब्राह्मण नहीं आया। तब मोहिनी ने अपने धन के दो विभाजन किये, जिसमें एक भाग अपनी दासियों को दे दिया, और दूसरा भाग अन्य विदेशियों को दे दिया। (ब्राह्मण मना कर चुके, क्षत्रिय दान लेते नहीं, वैश्यों को आवश्यकता नहीं, सो सारा धन दासियों को और विदेशियों को दे दिया) इस प्रकार से वह मोहिनी बिल्कुल ही निर्धन हो गयी। अपनी मृत्यु को निकट जानकर, अंतकाल में उसने अपनी दासियों को सेवामुक्त कर दिया, और वे दासियाँ भी धन लेकर इच्छानुसार चली गईं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि “दास” शब्द संस्कृत का है, भारतीय समाज में, सनातनी शास्त्रों में इसका वर्णन मिलता है। इसका पर्याय भृत्य, सेवक, किंकर आदि शब्दों से भी प्राप्त होता है। इस शब्द की क्या परिभाषा है, दास और स्वामी का क्या सम्बन्ध होना चाहिए, क्या मर्यादा है, इनका उल्लेख भी सनातनी शास्त्रों में ही प्राप्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं। फिर विदेशियों के स्लेवरी या गुलामी की तुलना या उसका अनुवाद हम भारत में दासप्रथा शब्द से कैसे कर सकते हैं ? वह क्रूरता, वह अमानवीय अत्याचार तो हमारे देश की संस्कृति का अंश ही नहीं है। हम तो यह सोच भी नहीं सकते कि केवल काम से लौटते समय देरी होने मात्र से हम किसी गर्भवती स्त्री को पीट पीट कर मार दें ! इसीलिए हमारे यहां स्लेवरी या गुलामी के पर्याय के रूप में कोई शब्द ही नहीं बना। दास, किंकर और भृत्य आदि शब्द की परिभाषा एवं व्यवहार नियमावली देखने से यह भेद स्पष्ट होता है। जिन लोगों ने ऐसी क्रूरता की, और जो आज भी कई प्रारूपों में इसे कर रहे हैं, उन देशों में उद्भूत एवं समर्थित, लाल झंडे, हरे झंडे एवं क्रॉस वाले लोग हमारे देश में आकर स्वयं के किये गए अत्याचारों के आरोप हमपर लगाएं, हमारे ही लोगों को हमारे विरुद्ध भड़काएं तो हम कब तक चुप रह सकते हैं ? हां, यह सत्य है कि मुगलों और अंग्रेजों के कार्यकाल में कुछ उच्चस्तरीय लोगों ने भेदभावपूर्ण अत्याचार किया है, किन्तु यह उनकी निजी दुष्टता थी, जिसका समर्थन शास्त्र या समाज नहीं करता है। यही कारण है कि सनातनी शास्त्रों में अथवा अंग्रेजों के ही लिखे गये विकृत इतिहास में भी आपको यह उद्धरण कहीं नहीं मिलेगा कि किसी राजा या ब्राह्मण ने किसी शूद्र की गर्भवती स्त्री को पीट पीट कर मार डाला। व्यक्तिगत रूप से पापी एवं धर्मात्मा लोग तो अब सभी वर्णों में हो गए हैं, किन्तु शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार चलने वाला ही वास्तव में भारत के सत्य को प्रकाशित करता है, जिसमें दास तो हैं, किन्तु गुलाम या स्लेव नहीं।

(मैंने जानबूझकर स्लेवरी गुलामी के एक भी ऐतिहासिक चित्र संलग्न नहीं किये हैं क्योंकि उन्हें देखना भी बहुत मानसिक आघात पहुंचाता है)

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru