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क्या बलराम जी शराबी थे ?

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बलराम जी स्वयं परम् योगेश्वर हैं। वे योगबल से भी वारुणीपान कर सकते हैं, अतएव उनमें सामान्य पतित मद्यप की भावना का आधान उचित नहीं है।

कपालमुद्रां वारुणीं पिबामि
(हाहाराव तन्त्र)

मैं (साधक) कपालमुद्रा (चक्रस्थित बिंदुविशेष) वाली वारुणी को पीता हूँ।

ओंकार की जो अंतिम बिंदुमात्रा है, उसे भी वेदों में वारुणी कहा गया है।

परमा चार्धमात्रा या वारुणीं तां विदुर्बुधाः॥
(नादबिन्दूपनिषत्)

रुद्रयामल तन्त्र का वचन है –

कलासप्तदशप्रोक्ता अमृतं स्राव्यते शशि:।
प्रथमा सा विजानीयादितरे मद्यपायिनः॥

चंद्रमा की (लौकिक सोलह एवं यौगिक एक के साथ कुल) सत्रह कलाएं हैं जिनसे वह अमृत टपकाता है। उसे ही (पञ्चमकार में) प्रथम जानना चाहिए। उसका ही सेवन करने वाला तन्त्र में मद्यप है, अन्यथा सामान्य शराबी तो बहुत से हैं।

इस प्रकार से वारुणी शब्द का, उस वारुणी मद्य का, यौगिक, तांत्रिक एवं वैदिक अर्थ यह सिद्ध करता है कि योग, तन्त्र एवं वेदों के परम उपास्य श्रीबलरामजी वारुणीपान करते हुए भी लौकिक व्यसनियों की भांति निंद्य नहीं है। शतपथब्राह्मण में ‘अन्नं सुरा‘ आदि भी आया है।

गौडी पैष्टी च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा ।
यथैवैका तथा सर्वा न पातव्या द्विजोत्तमैः ॥

(मनुस्मृति, विष्णुस्मृति, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, वैखानस गृह्यसूत्र)

उपर्युक्त श्लोक से सुरा के गौडी, पैष्टी एवं माध्वी, इन तीन प्रकार की सुरा का वर्णन है जो द्विजातियों के लिए सर्वथा त्याज्य है। नारद पुराण निर्माणद्रव्य के भेद से इनके ग्यारह प्रकार बताता है। कुछ के मत से खजूर से बनी हुई मदिरा का नाम वारुणी है।
तालं च पानसं चैव द्राक्षं खार्जूरसंभवम्॥
माधुक शैलमारिष्टं मैरेयं नालिकेरजम्।
गौडी माध्वी सुरा मद्यमेवमेकादश स्मृताः॥
(नारदपुराण, पूर्वार्द्ध, अध्याय – ३०, श्लोक – ३०-३१)

कुछ लोग अधिक बड़े धर्मरक्षक बनने के फेर में कहते हैं कि बलराम जी ने वारुणी पान किया ही नहीं है। यह बात सर्वथा अनुचित है। बलराम जी निःसन्देह वारुणी पान करते थे।

गायन्तं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम् ।
विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम् ॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध – १०, अध्याय – ६७, श्लोक – १०)

बलराम जी के नेत्र मद से चञ्चल हो रहे थे, वे वारुणी का पान करके गा रहे थे एवं उनके व्यक्तित्व की शोभा मदमस्त हाथी के समान हो रही थी। (यह प्रसङ्ग उस समय का है जब वे विहार के लिए रैवतक पर्वत पर गए थे और उन्होंने बाद में द्विविद का वध किया था।)

जिस प्रकार से श्रुतिमन्त्र, पूर्वकाल के अयोध्या की श्रीरामाकर्षिता स्त्रियां एवं ऋषियों ने भी श्रीकृष्णचन्द्र जी के साथ गोपीवेश से कात्यायनी देवी की पूजा से प्राप्त वरदान के फलस्वरूप शरद पूर्णिमा में यमुना तट पर रासलीला की थी, वैसे ही शेषनाग के अवतार श्रीबलराम जी ने भी यमुना तट पर चैत्र पूर्णिमा को गोपीवेष धारण करने वाली नागकन्याओं के साथ रासक्रीड़ा की थी।

अथ च या नागकन्याः पूर्वोक्तास्ता गोपकन्या भूत्वा बलभद्रप्राप्त्यर्थं गर्गाचार्याद्‌बलभद्रपञ्चांगं गृहीत्वा तेनैव सिद्धा बभूवुः ॥ ताभिर्बलदेव एकदा प्रसन्नः कालिन्दीकूले रासमण्डलं समारेभे ॥ तदैव चैत्रपूर्णिमायां पूर्णचन्द्रोऽरुणवर्णः सम्पूर्णं वनं रञ्जयन् विरेजे॥

(गर्गसंहिता, बलभद्रखण्ड, अध्याय – ०९)

(सम्बंधित ग्रंथ में पहले वर्णित) नागकन्याओं ने गोपकन्याओं का रूप धारण करके गर्गाचार्य जी से बलभद्र जी के पञ्चाङ्ग (पटल, पद्धति, कवच, स्तोत्र, सहस्रनाम) प्राप्त करके सिद्धि प्राप्त की। इस बात से बलराम जी प्रसन्न हुए और उन्होंने कालिंदी (कलिंद अर्थात् सूर्य की पुत्री होने से यमुना जी का नाम कालिंदी है) कि तट पर रासमण्डल का आरम्भ किया। उस चैत्र पूर्णिमा को किंचित् लालिमा वाला पूर्णचन्द्र (यहां बलराम जी को भी लाल वर्ण वाला पूर्ण चन्द्र बताने का भाव है) सम्पूर्ण वन को आनंदित करता हुआ विराजमान था।

आगे वर्णन है –

अथ वरुणप्रेषिता वारुणी देवी पुष्पभारगंधलोभिमिलिंदनादितवृक्षकोटरेभ्यः पतन्ती सर्वतो वनं सुरभीचकार ॥

वरुण देवता के द्वारा भेजी गयी वारुणी देवी ने, फूलों के गन्ध को लोभ वाली मधुमक्खियों से गुंजायमान वृक्षों की खोढर से बहकर गिरती हुई उस वन को चारों ओर से सुगंधित कर दिया।

वहां वे अत्यंत प्रसन्न होकर वारुणी का पान करते हुए मधुर गीत वाद्य आदि में कुशल गोप एवं गोपियों के साथ आनंदित हो रहे थे।

पपौ च गोपगोपीभिः समवेतो मुदान्वितः ।
उपगीयमानो ललितं गीतवाद्यविशारदैः ॥
(विष्णुपुराण, अंश – ०५, अध्याय – २५)

वारुणी देवी के प्राकट्य, बलराम जी के द्वारा उनके पान की यह कथा विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत महापुराण आदि में भी वर्णित है।

प्राड्विपाक मुनि ने दुर्योधन के साथ हुए सम्वाद में उसे विस्तार से बलरामजी के दिव्य ईश्वरीय रूप का वर्णन करते हुए बलरामजी की स्तुति की है –

जय जयाच्युतदेव परात्पर
स्वयमनन्तदिगंतगतश्रुत।
सुरमुनींद्रफणीन्द्रवराय ते
मुसलिने बलिने हलिने नमः॥

(गर्गसंहिता, बलभद्रखण्ड, अध्याय – ११, श्लोक – ०२)

कभी अपनी महिमा से नीचे नहीं गिरने वाले परात्पर अच्युतदेव की जय हो। जो अनन्त हैं, जिनका कभी अन्त नहीं होता, जिनकी महिमा सभी दिशाओं में विख्यात है, जो देवताओं, ऋषियों और नागों में श्रेष्ठ हैं, ऐसे हल-मूसल को धारण करने वाले, बल के धाम (बलराम) के लिए प्रणाम है।

अब बताईये, गौभक्षक म्लेच्छों के साथ रहने वाला, मंच से गुणगान करने वाला कोई बापू हो या स्वामी, भला बलराम जी के दिव्य रूप को कैसे जान सकता है ?

अब हम देखते हैं कि वारुणी कहते किसे हैं। बलराम जी वारुणी ही क्यों पीते थे, वारुणी कितने प्रकार की है, उसके निर्माण की विधि क्या है, उसके सेवन का क्या प्रभाव है, आदि आदि …

अन्नादिसम्भवो योऽर्कस्तन्मद्यं परिकीर्तितम्॥

अन्न इत्यादि के द्वारा जो अर्क बनता है, उसे मद्य कहा जाता है। शिव जी ने रावण को तंत्रायुर्वेद ग्रंथों में कई प्रकार के मद्य का उपदेश करके करके अंत में कहा –

शालिपेठकपिष्ट्यादिकृतो योऽर्कः सुरा तु सा।
पुनर्नवाशिवापिष्टैर्विहिता वारुणी स्मृता॥
(रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय – ०५ अथवा सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक – ०९)

चावल एवं पेठे की पिष्टी बनाकर जो अर्क निकाला जाता है, उसे सुरा कहते हैं। पुनर्नवा एवं हरड़ को पीसकर उसकी पिष्टी से निकाला गया अर्क वारुणी कहलाता है।

रावण को शिव जी ने सौ से अधिक प्रकार के अर्क एवं मद्य के निर्माण की विधि बताई है। इसी बात में रावण ने मन्दोदरी को बताते हुए कहा है –

पुनर्नवाशिलापिष्टैर्विहिता वारुणी च सा।
संहितैतालखर्जूररसैर्या सा च वारुणी॥

(दिव्यौषधि कल्प, मद्यप्रकरण, पटल – ११, श्लोक – ५९)

पुनर्नवा को पत्थर पर पीस कर, उससे बनने वाले मद्य को वारुणी कहते हैं। ताड़ एवं खजूर के रस से जो मद्य बनता है, उसको भी वारुणी कहते हैं। (आजकल भी आयुर्वेद-ग्रंथों के आधार पर पुनर्नवारिष्ट अथवा द्राक्षासव बनाते और सेवन किये जाते हैं, जो शरीर में बल, वीर्य, ओज, रक्त आदि की वृद्धि करते हैं, इनकी भी तन्त्रमत में वारुणी संज्ञा है)

पर्यायाद्यो भवेन्मद्यस्तामसो राक्षसप्रियः।
मंडादि राजसो ज्ञेयस्ततो वै सात्विको भवेत्॥
सात्विकं गीतहास्यादौ राजसं साहसादिके।
तामसे निंद्यकर्माणि निद्रां च बहुधा चरेत्॥
(रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय – ०५, सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक – ११-१२)

बारम्बार एक ही तत्व को धर्षित करके बनाए गए (अथवा अत्यधिक मात्रा में सेवन किये गए) को तामसी मद्य कहते हैं। मांड आदि से बनाये गए (मतांतर से कभी कभी लिए गए) मद्य को राजसी कहते हैं। इसके अतिरिक्त शेष (औषधि आदि से निर्मित, संवित्शक्ति को देने वाले) मद्य को सात्विक कहते हैं। सात्विक मद्य का प्रयोग गीत, हास्य, विलास आदि में होता है। साहस, युद्ध इत्यादि के कार्य में राजस मद्य का प्रयोग होता है। शेष निंद्य कर्म तथा निद्रा आदि को प्रदान करने वाले कर्म में तामसी मद्य का प्रयोग होता है। वारुणी के दो अन्य पर प्रभेद भी होते हैं – राजवारुणी एवं क्षुद्रवारुणी।

राजवारुणी के निर्माण की विधि बताते हैं –

शुण्ठी कणा कणामूलं यवानी मरिचानि च॥
तुल्यान्येतानि सर्वाणि एभ्यो द्विध्नोऽम्नलो रजः।
प्रोक्तान्तर्गतदिक्कान्नं स्वादुसंख्या नखोन्मिता।
सर्वेभ्यो द्विगुणं स्वादं स्थापयेन्मासमात्रकम्।
कुर्यादष्टप्रहरकं प्रत्यहं च ततः पुनः॥
ततो निष्कासयेदर्कं सुरेयं राजवारुणी।
मासं भूमौ निखातव्या तत ऊर्ध्वं च भक्षयेत्॥
(रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय – ०५, सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक – २३-२६)

सोंठ, पीपर, पिपरामूल, अजवायन एवं काली मिर्च को समान भाग में लेकर कूट लें और दोगुने अम्ल (मट्ठा, विनेगर, इमली पानी आदि) में मिलाएं। फिर इसमें दस प्रकार की शहद एवं बीस प्रकार के गन्ने का रस मिलाएं। (कुछ वैद्य इसमें आठ प्रकार की शहद एवं बारह प्रकार के गन्ने का रस मिलाते हैं) इसके बाद इन सबसे दोगुना गुड़ मिलाकर एक महीने तक घड़े में, प्रतिदिन आठ प्रहर दिन के धूप में रखें। उसके बाद इसका अर्क निकाल लें, इसे ही राजवारुणी कहते हैं। इसे पुनः एक महीने तक घड़े में बंद करके, ढ़ककर मिट्टी में दबा दें। एक महीने के बाद खोदकर निकालें एवं सेवन करें।

अब इस राजवारुणी के पान से क्या लाभ होता है, उसका विवेचन करते हैं –

इयं शीता लघु: स्वाद्वीस्निग्धा ग्राही विलेखनी।
चक्षुष्या दीपनी स्वर्या व्रणशोधनरोपणी॥
सौकुमार्यकरा सूक्ष्मा परं स्रोतोविशोधनी।
कषाया च रसाह्लादा प्रसादजनका परा॥
वर्ण्या मेधाकरी वृष्या तथारोधकतां हरेत्।
कुष्ठार्श: कासपित्तास्रकफमेहक्लमकृमीन्॥
मेदतृष्णावमिश्वासहिक्कातिसारविड्ग्रहान्।
दाहक्षतक्षयायैवं योगवाह्याऽम्लवातला॥
(रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय – ०५, सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक – २७-३०)

यह राजवारुणी शीतल, हल्की, मीठी, चिकनी स्वभाव की, पतले दस्त को ठीक करने वाली, नेत्रों की ज्योति बढ़ाने वाली, भूख जगाने वाली, कण्ठ को मधुर करने वाली, घाव-जख्म आदि भरने वाली, शरीर को सुन्दर एवं सुकुमार बनाने वाली, नाड़ियों में रक्तप्रवाह को सुधारने वाली, शारीरिक कान्ति बढ़ाने वाली, धारणा शक्ति और वीर्य को पुष्ट करने वाली, अरुचि का नाश करने वाली, कुष्ठ, अर्श (बवासीर), खांसी, रक्तपित्त, कफ, प्रमेह, थकावट, कृमि, मेदा रोग, अत्यधिक प्यास या उल्टी, श्वास रोग, हिचकी, अतिसार, कब्ज, जलन, बदहज़मी एवं क्षयरोग को दूर करने वाली है।

अब इससे कुछ सामान्य गुणों वाली क्षुद्रवारुणी की विधि एवं प्रभाव पर ध्यान दें –

कंगुश्चीणा कोद्रवश्च श्यामाको वनकोद्रव:।
शणबीजं वंशबीजं गवेध्रुश्च प्रसाधिका॥
यावन्त्येतानि चोक्तानि तुषधान्यानि वेधश:।
सर्वे संतुट्य यत्नेन वितुषीकृत्य यत्नतः॥
तक्रे वा क्वचिदम्ले वा आकीटं तद्विनि:क्षिपेत्।
ततो निष्कासयेन्मद्यं भवेत्सा क्षुद्रवारुणी॥
मण्डलार्धं तु भोक्तव्या बहुक्लेशकरैर्नरै:।
क्षुधा तृषा च चिन्ता च “””पर्वतारोहणादिकम्”””॥
एतत्स सेवितो नास्ति “””महाभारवहोऽपि वा”””।
सूता समुपवेष्टा चेज्जयेत् प्रसववेदनाम्॥
(रसकामेश्वरी दिव्यचिकित्साखण्ड, अध्याय – ०५ अथवा सुराकल्पामृतयोग नामक प्रथम पटल, श्लोक – ३१-३५)

कँगुनी, चीना (सम्भवतः रामदाना), कोदो, साँवा, बनकोदो, सन के बीज, बांस के बीज (करील के उद्भवकण), गड़हेरुआ और प्रसन्धिका, ये सभी क्षुद्र धान्य कहलाते हैं। अब सबको अच्छे से कूटकर भूसी निकाल लें और मट्ठे या दूसरी (दोगुनी) खटाई में डाल दें। जब इसमें किण्वन (Fermentation) हो जाये तो अर्क निकाल लें। यह मद्य क्षुद्रवारुणी कहलाती है। अधिक परिश्रम करने वाले व्यक्तियों को यह पन्द्रह दिन तक सेवन करनी चाहिए। इसके सेवन से अधिक परिश्रम करने की क्षमता विकसित होती है। “””पर्वत चढ़ने वालों एवं भार ढोने वालों को कष्ट नहीं होता।””” बच्चे के जन्म के समय प्रसूता को इसे पिलाने से उसे प्रसवपीड़ा में आराम मिलता है।

आप ध्यान देंगे तो कुछ बातें पाएंगे :-

१) बलराम जी रजोगुणी अथवा मतांतर से तमोगुणी अवतार हैं, जिसके कारण उनके व्यक्तित्व में तमोगुणी अथवा रजोगुणी क्रियोचित वारुणीपान की लीला सामान्य है।

२) बलराम जी का बारम्बार अत्यधिक बलयुक्त कार्य करना, लम्बी यात्राएं करना, रैवतक आदि पर्वतों पर चढ़ना वर्णित है, जिससे हुए लौकिक थकान को वारुणी दूर करती है। शेषावतार बलराम जी आध्यात्मिक एवं आधिदैविक दृष्टि से पृथ्वी का भार भी वहन करते हैं, जिसमें भी वारुणी सहायिका होती है। अतः उनका सांकेतिक वारुणीपान इस दृष्टि की भी पुष्टि करता है।

३) बलराम जी पारिस्थितिक वारुणी पान के बाद नृत्य, गीत, संगीत, पर्वतारोहण, और आंशिक रूप से साहसिक युद्धादि कार्य भी करते थे। वे शराबियों की भांति उन्मत्त होकर प्रलाप या असामाजिक गतिविधियों में लिप्त नहीं रहते थे। उपर्युक्त श्लोकों में हमने वारुणी के प्रयोगों में तत्सम्बन्धी कृत्यों का उल्लेख किया है।

अब एक रहस्य कथा बताता हूँ कि वारुणी का ही पान बलराम जी क्यों करते थे ? क्योंकि वारुणी मद्य की अधिष्ठात्री देवी वरुणपुत्री वारुणी स्वयं बलराम जी की पत्नी हैं।

तदैव देवी वारुणी शेषपत्नी, तपश्चक्रे इन्दिराप्रीतये च ।
तदा प्रीता इन्दिरा सुप्रसन्ना, उवाच तां वारुणीं शेषपत्नीम् ॥

वारुणी देवी ने, जो लक्ष्मी देवी की ही एक अंश थी (क्योंकि वे भी लक्ष्मी के साथ समुद्र से निकली थीं), उन्होंने लक्ष्मी देवी के दूसरे रूप इंदिरा की आराधना की थी। लक्ष्मी देवी ने तो श्रीविष्णु को पतिरूप में प्राप्त किया किन्तु वारुणी देवी शेषनाग को पति बनाना चाहती थीं। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर श्रीदेवी ने वरदान दिया –

यदा रामो वैष्णवांशेन युक्तः संपत्स्यते भूतले रौहिणेयः ।
मय्यावेशात्संयुता त्वं तु भद्रे श्रीरित्याख्या बलभद्रस्य रन्तुम्॥

जब (बल)राम वैष्णवांश से युक्त होकर रोहिणीपुत्र के रूप में भूर्लोक में जाएंगे, तब तुम (वारुणी), मेरे अंश से आविष्ट होकर तुम बलभद्र के साथ विहार करोगी।

संपत्स्यसे नात्र विचार्यमस्तीत्युक्त्वा सा वै प्रययौ विष्णुलोके ।
श्रीलक्ष्म्यंशाच्छ्रीरितीड्यां समाख्यां लब्ध्वा लोके शेषपत्नी बभूव ॥

तुम भी भूर्लोक में जाओगी, ऐसा कहकर देवी लक्ष्मी विष्णुलोक को चली गईं। उन्हीं लक्ष्मी के अंश का आश्रय लेकर वारुणी देवी संसार में शेषपत्नी बनी।

या रेवती रैवतस्यैव पुत्री सा वारुणी बलभद्रस्य पत्नी ।
सौपर्णनाम्नी बलपत्नी खगेन्द्र यास्तास्तिस्रः षड्विष्णोश्च स्त्रीभ्यः॥

जो रैवत की पुत्री रेवती हैं, वही बलराम की पत्नी वारुणी हैं। उन्हीं का नाम सौपर्णी (अथवा सुपर्णा) भी है। इस प्रकार से शेषनाग की तीन एवं विष्णु की छः पत्नियां हुई।

(शेषनाग की तीन पत्नी – ज्योतिष्मती, सौपर्णी एवं वारुणी। अवतारभेद से तीन पत्नी – तुष्टि, उर्मिला एवं रेवती। भगवान् विष्णु की कलाभेद से छः पत्नियां – श्रीदेवी, भूदेवी, वृन्दा, सरस्वती, गंगा एवं पद्मा)

(गरुड़ जी कहते हैं)

रामेण रन्तुं सर्वदा वारुणी तु पुत्रीत्वमापे रेवतस्यैव सुभ्रूः ।
एवं त्रिरूपा वारुणी शेषपत्नी द्विरूपभूता पार्वती रुद्रपत्नी॥

(गरुड़पुराण, ब्रह्मकाण्ड, अध्याय – २८)

बलराम जी के साथ विहार की इच्छा से वारुणी ने रेवत की सुंदर पुत्री के रूप में अवतार लिया। इस प्रकार वारुणी तीन रूपों से शेषपत्नी बनी एवं पार्वती दो रूपों (दाक्षायणी सती एवं शैलजा उमा) से रुद्रपत्नी बनी।

एक तो बलराम जी स्वयं रजोगुण की प्रधानता वाले अवतार हैं, दूसरे वारुणी देवी स्वयं उनकी पत्नी अर्थात् शक्तिरूपा है, अतः स्वशक्ति का उपभोग शक्तिमान् को बाधित नहीं करता। जैसे अग्नि को उसकी स्वयं की दाहिका शक्ति जला नहीं सकती, वैसे ही शेषावतार बलराम जी को शेषपत्नी वारुणी का नकारात्मक प्रभाव नहीं हो सकता है।

मुरारिदास इत्यादि ने परम्परा से, गुरुसेवा करके शास्त्र का अध्ययन तो किया नहीं है, इसीलिए उसके गाम्भीर्य को समझने की क्षमता नहीं रखते हैं। पुनश्च, म्लेच्छों की अतिवादिता ने उसके मन को विक्षिप्त कर दिया है, जो शास्त्रों के प्रति अश्रद्धा से व्याप्त है। उसके इस प्रलाप को सुनने के लिए जो लोग वहां बैठे थे, विष्णुनिन्दा सुन रहे थे, उन्हें भी गोहत्या का पाप निश्चय ही लगेगा।

हरि हर निन्दा सुनई जे काना। होई पाप गोघात समाना॥

क्या मुरारिदास या उसके प्रबंधकों में यह साहस है कि वह इस लेख में वर्णित शास्त्रोक्त प्रमाणों के आधार पर क्षमा मांगते हुए यह कह सकें कि बलराम जी पियक्कड़ शराबी नहीं थे जो दिनभर नशे में धुत्त रहते थे। मैं जानता हूँ कि वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि उनका कार्य समाज को धर्म की शिक्षा देना, शास्त्रनिष्ठ बनाना नहीं है, अपितु भ्रामक वार्ता करके समाज को दिशाहीन करते हुए पथभ्रष्ट करना और उसके माध्यम से अपनी दुकानें चलाना है। इन दिव्य रहस्यों को केवल गुरुकृपा से ही जाना जा सकता है, म्लेच्छों की काल्पनिक करुणा का बखान करके नहीं। वह कहता है कि धर्म में लड़ाई नहीं होती, अधर्म में होती है। सत्य है, किन्तु धर्म और अधर्म की परिभाषा तो मुरारिदास स्पष्ट करे। यदि करोड़ों हत्या और बलात्कार करने वाला अरबी मजहब भी धर्म है तो अधर्म की क्या परिभाषा है ? यहां पर धर्म और धर्म में नहीं, धर्म और अधर्म में ही तो लड़ाई है और ये है, कि अधर्म को ही धर्म बताकर हमें मूर्ख बना रहा है। अधर्म को ही धर्म समझने वाली विपरीत बुद्धि को भगवान् श्रीकृष्ण ने तामसी बताया है। बस वर्तमान स्थिति में यही कह सकता हूँ –

शेषो शेषामलज्ञानः करोत्वज्ञाननाशनम् ।
(विष्णुधर्मोत्तरपुराण)

निर्मल ज्ञान ही जिनमें शेष है, ऐसे भगवान् शेष अज्ञान का नाश करें।

नमोऽस्तु ते सङ्कर्षणाय बलभद्रायानन्ताय परमात्मने लीलामानुषाय।

लोकों को आकर्षित करने वाले, अनंत, बलभद्र, लीला से मनुष्य का रूप धारण करने वाले परमात्मा को प्रणाम है।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru