Home प्रकीर्ण महावाक्य क्या हैं ?

महावाक्य क्या हैं ?

1233

सोऽहम् ॥०५॥

निवृत्तिभाष्यम्
आधारस्थानमारभ्यमूर्ध्वपर्यन्तगामिना पवनेन हकारमुच्चरेत्। सकारं मुखतो विसृजेदिति लक्ष्मीतन्त्रे। अत्र हंसेऽक्षरत्रयम् हकारोऽनुस्वारयुक्तोऽकारः सकारश्चेति। विपर्यये सोऽहमिति। सकारञ्च हकारञ्च जीवो जपति सर्वदा इति ब्रह्मविद्योपनिषदि। सोऽहमात्मा इति भस्मजाबालोपनिषदि। सकारञ्च हकारञ्च लोपयित्वा प्रयोजयेत् । सन्धिं वै पूर्वरूपाख्यं ततोऽसौ प्रणवो भवेदिति मानसोल्लासे। व्यञ्जनस्य सकारस्य हकारस्य च वर्जनात्। ओमित्येव भवेत्स्थूलो वाचकः परमात्मन इति शिवपुराणे। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म इति श्रीमद्भगवद्गीतासु।

लक्ष्मीतन्त्र में कहते हैं कि मूलाधार से आरम्भ करके ऊपर की ओर गमन वाले वायु के द्वारा हकार का उच्चारण करे। सकार का मुख से विसर्जन करे (वायु के साथ उच्चारण करे)। इस ‘हंस’ पद में तीन अक्षर हैं। हकार, अनुस्वार के साथ अकार (अं) तथा सकार। इसको विपरीत कर देने से सोऽहम् बनता है। ब्रह्मविद्योपनिषत् में वर्णन है कि जीव सदैव इस सकार एवं हकार का जप करता है। भस्मजाबालोपनिषत् में सोऽहम् को आत्मतत्त्व कहा है। सकार एवं हकार का लोप करके इसका प्रयोग करे, यह पूर्वरूपसन्धि है जिससे यह प्रणव (ॐ) बन जाता है, ऐसा मानसोल्लास में है। सकार एवं हकार व्यंजनों को वर्जित करने से ॐ बनता है, जो परमात्मा का स्थूल वाचक है, ऐसा शिवपुराण में है। ॐ, यह एकाक्षर ब्रह्म है, ऐसा श्रीमद्भगवद्गीता में है।

*-*-*

ईशा वास्यमिदं सर्वम्॥०६॥

निवृत्तिभाष्यम्
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर इति योगदर्शनम्। अविद्यादिपञ्चक्लेशैः पापपुण्यादिकर्मविपाकैः स्वभावतो निर्मुक्त ईशः। तेन ईश्वरेणेदं दृश्यादृश्यमयं जगत् सर्वतोभावेन परिरक्षितं तस्मात्तेन व्याप्तमित्यर्थः।

क्लेश एवं कर्मविपाक से भिन्न और निर्बाध पुरुष विशेष को ईश्वर कहते हैं, ऐसा योगदर्शन का वचन है। अविद्या आदि पांच क्लेश तथा पाप-पुण्यादि कर्मविपाक से स्वभावतः निर्मुक्त ‘ईश’ होता है। उस ईश्वर के द्वारा यह दृश्य एवं अदृश्य जगत् पूरी तरह से रक्षित है और इसी कारण से उससे व्याप्त है, ऐसा अर्थ है।

*-*-*

प्राणोऽस्मि ॥०७॥

निवृत्तिभाष्यम्

प्राणिति जीवति बहुकालमिति प्राणः। प्राणः प्राणयते प्राणमिति अग्निपुराणे। पिण्डे दशविधः प्राणापानव्यानसमानोदाननागकूर्मकृकलदेवदत्तधनञ्जय इति पुराणेषु। ब्रह्माण्डे सप्तविध ऊर्ध्वप्रौढाव्यूढविभूर्योनिप्रियापरिमित इत्यथर्ववेदे। प्रोच्यते भगवान् प्राणः सर्वज्ञः पुरुषोत्तम इति कूर्मपुराणे। आत्मा वै मनो हृदयं प्राण इति शतपथब्राह्मणे तस्मादहमात्मा प्राणरूपीति भावयेत्।

बहुत समय तक जीवित रहता है, प्राणशक्ति से युक्त रहता है, अतएव प्राण है। ‘प्राण’ प्राणशक्ति का संचार करता है, ऐसा अग्निपुराण का वचन है। शरीर में यह दश प्रकार का होता है – प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त एवं धनंजय, ऐसा पुराणों का कथन है। ब्रह्माण्ड में यह सात प्रकार का होता है – ऊर्ध्व, प्रौढ, अव्यूढ, विभू, योनि, प्रिय एवं अपरिमित, ऐसा अथर्ववेद में है। भगवान् प्राण सर्वज्ञ एवं पुरुषोत्तम कहे गये हैं, ऐसा कूर्मपुराण का वचन है। शतपथब्राह्मण कहते हैं, आत्मा ही मन, हृदय एवं प्राण है, अतएव मैं, आत्मा प्राणरूपी हूँ, ऐसी भावना करे।

*-*-*

प्रज्ञानात्मा ॥०८॥

निवृत्तिभाष्यम्

प्राथमिके प्रोक्तानुसारं प्रज्ञानमिति ब्रह्म। ब्रह्मात्मबोधेन मुक्तिः। कर्मबन्धो जीव आत्मा कर्ममुक्तः। प्रज्ञानमयं ब्रह्म प्रति निम्नगासिन्धुवद्यात्यभिन्नतां लभते। घट उद्भिन्ने तदाकाशो महाकाशो भवति यथा तस्मात्तथा प्रज्ञानात्मा।

पहले कहे गए अनुसार प्रज्ञान का अर्थ ब्रह्म है। ब्रह्म एवं आत्मा के बोध से मुक्ति होती है। कर्मबन्धन में फंसा जीव कहलाता है और कर्म से मुक्त आत्मा होता है। प्रज्ञानमय ब्रह्म के प्रति यह आत्मा वैसे ही जाकर अभिन्न हो जाता है जैसे नदी समुद्र के प्रति। जैसे, घड़े के फूटने पर उसका आकाश महाकाश में लीन हो जाता है। अतएव प्रज्ञान आत्मा है।

*-*-*

अक्षरं ब्रह्म परमम् ॥०९॥

निवृत्तिभाष्यम्

न क्षरतीत्यक्षरम्। क्षराद्विरुद्धधर्मत्वादक्षरं ब्रह्म भण्यते। क्षर सञ्चलने, न क्षरतीति, कूटस्थमस्तीत्यक्षरम्। कूटस्थश्चेतनो भोक्ता स तु अक्षरः पुरुष उच्यते विवेकिभीरिति श्रीधरस्वामी। अक्षरं परमं ब्रह्म विश्वं चैतत् क्षरात्मकमिति वामनपुराणे। अक्षरं तत्परं पदमिति भविष्यपुराणे। अक्षरं ब्रह्म सत्यमिति पद्मपुराणे। अक्षरं ध्रुवमेवोक्तं पूर्वं ब्रह्म सनातनमिति ब्रह्मपुराणे।

जिसका क्षरण न हो, वह अक्षर है। क्षरण के विपरीत धर्म वाला अक्षर ब्रह्म कहा जाता है। क्षर शब्द चलने के अर्थ में है, जो क्षरित नहीं होता है, कूटस्थ है, वह अक्षर है। श्रीधरस्वामी कहते हैं – कूटस्थ चेतन भोक्ता है, वह विवेकियों के द्वारा अक्षर पुरुष कहा जाता है। वामनपुराण का वचन है – यह विश्व क्षरात्मक है एवं परब्रह्म अक्षर है। वह परमपद अक्षर है, ऐसा भविष्यपुराण का वचन है। वह अक्षर ब्रह्म सत्य है, ऐसा पद्मपुराण में है। निश्चय ही पहले कहा गया ब्रह्म अक्षर एवं सनातन है, ऐसा ब्रह्मपुराण का कथन है।