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महावाक्य क्या हैं ?

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असावादित्यो ब्रह्म ॥१७॥

निवृत्तिभाष्यम्

असावादित्यो ब्रह्मेत्यजपयोपहितं हंसः सोऽहमिति महावाक्योपनिषदि। असावादित्यो ब्रह्मेति तद्दोषस्य प्रशान्तय इति प्रश्नसंहितायाम्। तद्दोषस्येति मन्त्रदोषस्यार्थः। असावादित्यो ब्रह्मेति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति य एवं वेद इत्यन्तं श्रयत इति वैखानसगृह्यसूत्रे। अदितिरिति अखण्डार्थे। अखण्डत्वादादित्यः। तस्मादसावादित्यो ब्रह्म।

हंसमन्त्र एवं सोऽहं मन्त्र ‘असावादित्यो ब्रह्म’ इस अजपा से उपहित हैं, ऐसा महावाक्योपनिषत् का कथन है। प्रश्नसंहिता कहती है कि ‘उसके दोष की शान्ति के लिए असावादित्यो ब्रह्म का प्रयोग करे’। ‘उसके दोष’ से मन्त्रदोष का अर्थ है। वैखानस गृह्यसूत्र का वचन है – ‘यह आदित्य ब्रह्म हैं, ब्रह्म को इस प्रकार जानकर ब्रह्म को प्राप्त कर जाता है।’ अदिति शब्द यहाँ अखण्डता के अर्थ में है। अखण्डता से सम्बन्धित होने से आदित्य हैं। अतएव ‘यह आदित्य ब्रह्म हैं।’ यह जो आदित्य पुरुष है, वह अनादि मैं ही हूँ, ऐसा गीतासार पहले अर्जुन के लिये कहा गया था जिसे जानकर मनुष्य ब्रह्म में लय हो जाता है।

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स यश्चायं पुरुषो यश्चासावादित्ये स एकः॥१८॥

निवृत्तिभाष्यम्
प्र इति नवीनेति। परिवर्तनक्रमेण नित्यं नूतना कृतिर्विसर्ज्यते यया सा प्रकृतिः। प्रकृतेरपरः पुरुषः। अनादित्वेनानामरूपगुणगोत्रवान्। स्थाणुरिव कूटस्थो वायुरिव सर्वगो वह्निरिव प्रदीप्तः पुरुषो भवति। यः पुरुषः एभिर्लक्षणैरुप गीयमानो यदादित्ये ब्रह्मतत्त्वमस्ति तत्तु एतस्मिन्पुरुषेऽपि तिष्ठति। उभयोरन्तरं नास्ति। योऽसावादित्यपुरुषः सोऽसावावहमनादिमत्। गीतासारोऽर्जुनायोक्तो येन ब्रह्मणि वै लय इति गरुडपुराणे।

प्र का अर्थ नवीन होता है। परिवर्तनक्रम के कारण जिसके द्वारा नित्य नयी कृति की रचना की जाती है, उसे प्रकृति कहते हैं। पुरुष प्रकृति से परे है। अनादि होने से यह निश्चित नाम, रूप, गुण एवं गोत्र वाला नहीं है। ठूंठ के समान कूटस्थ, वायु के समान सर्वत्र विचरण करने वाला, अग्नि के समान प्रज्वलित कलेवर वाला पुरुष होता है। जो पुरुष इस प्रकार के लक्षणों वाला बताया गया है और जो आदित्य में ब्रह्मतत्त्व प्रतिष्ठित है, वह भी इसी पुरुष में स्थित रहता है, इन दोनों में अन्तर नहीं है। यह जो आदित्य पुरुष है, वह अनादि मैं ही हूँ, ऐसा गीतासार पहले अर्जुन के लिये कहा गया था जिसे जानकर मनुष्य ब्रह्म में लय हो जाता है।

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एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥१९॥

निवृत्तिभाष्यम्
सर्वज्ञत्वेनान्तर्यामी। एष इत्यात्मा लक्षणीयो जरामरणव्याध्यादिभ्यो विनिर्मुक्तो निर्विकल्पधर्मात्मामृत इति। अद्वैताचारयोगेन साधकः सिद्धिभाग्भवेत् । द्वैताद्वैतं तु येषां तु तेषां सिद्धिर्न जायत इति हाहारावतन्त्रे। तस्मादत्र विवादो न प्रकर्तव्यः। सर्वं विजानाति प्रत्यक्षमप्रत्यक्षं वा तस्मादन्तर्यामी। समष्टिमूलकत्वेन तिलेषु तैलवद्भासते। व्यष्टिमूलकत्वेन हृदि स्थितस्तस्मादन्तर्याम्यमृतञ्च।

सर्वज्ञ होने से अन्तर्यामी है। ‘एष’ पद से आत्मा को लक्षित किया जाना चाहिए जो वृद्धावस्था, मृत्यु, रोग आदि से सर्वथा मुक्त, निर्विकल्प लक्षण वाला अमृतरूपी है। अद्वैताचार के कारण साधक सिद्धियों को प्राप्त करता है और जो द्वैत एवं अद्वैत में उलझे रहते हैं, उन्हें सिद्धि नहीं होती, ऐसा हाहाराव तन्त्र का कथन है। अतएव इस विषय में विवाद नहीं करना चाहिए। प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष हो, यह सब कुछ जानता है, अतएव अन्तर्यामी है। समष्टिमूलक भाव से यह समस्त शरीर में वैसे ही भासित होता है जैसे तिल में तेल। व्यष्टिमूलक भाव से इसकी स्थिति हृदयदेश में है, अतएव यह अन्तर्यामी और अमृतत्त्व की संज्ञा से युक्त है।

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अहमस्मि परब्रह्म परापरपरात्मकम् ॥२०॥

निवृत्तिभाष्यम्

अहमिति ब्रह्मबोधः। परमित्यलौकिकः। परा ब्रह्मज्ञानप्रदायिनी। अपरा लोकज्ञानदात्री। द्वयोर्नियन्त्रणं कृत्वा संसारप्रवर्तनानुपालकः परापरपरात्मकः। परेऽति रुद्रोऽपरेति ब्रह्मा परात्परेऽति विष्णुरिति श्रुतिः। तेषां श्रेष्ठो निर्गुणोऽव्यक्तः परब्रह्म इति परापरपरात्मकः। अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदमिति श्रीमद्भागवते शुकोपदेशः।

‘अहम्’ पद ब्रह्म का वाचन करता है। ‘पर’ का अर्थ अलौकिक है। परा विद्या का अर्थ ब्रह्मज्ञान है। अपरा विद्या का अर्थ लोकज्ञान है। इन दोनों पर नियन्त्रण करके संसारप्रवर्तनानुपालन करने वाला परापरपरात्मक है। वेदों में पर को रुद्र, अपर को ब्रह्मा एवं विष्णु को परात्पर कहा गया है। उनसे श्रेष्ठ, निर्गुण, अव्यक्त, परब्रह्म को परापरपरात्मक कहते हैं। मैं ब्रह्म हूँ, परमधाम एवं ब्रह्म ही हूँ, परमपद हूँ, ऐसा श्रीमद्भागवत में शुकदेव जी का अन्तिम उपदेश है।

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सर्वं खल्विदं ब्रह्म ॥२१॥

निवृत्तिभाष्यम्

सर्वमिति जडचेतनमयं चराचरञ्जगत्। खल्विदमित्यशेषतया लोके लोकोत्तरे वा। अहं ब्रह्मस्वरूपिणीति देव्यथर्वशीर्षे। सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनमिति श्रीमद्देवीभागवते। सत्तामसत्तां परिभावयन् सर्वगोचरागोचरत्वधर्मिणां तत्त्वे ब्रह्मतत्त्वं प्रतिष्ठितमित्यर्थः।

‘सर्व’ का तात्पर्य जड़चेतन से युक्त यह चराचर जगत् है। ‘खल्विदं’ का अर्थ निःशेष संसार एवं संसार से परे तत्त्वों से सम्बन्धित है। देव्यथर्वशीर्ष में देवी कहती हैं – मैं ब्रह्मस्वरूपिणी हूँ। श्रीमद्देवीभागवत में कहते हैं – जो कुछ भी संसार में है, सब कुछ मैं ही हूँ, मेरे अतिरिक्त कोई अन्य शाश्वत सनातन नहीं है। सत्ता एवं असत्ता की भावना करते हुए सभी इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य एवं अग्राह्य गुण वालोंणां के तत्त्व में ब्रह्मतत्त्व प्रतिष्ठित है, ऐसा अर्थ है।

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