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काल (समय) क्या है ?

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काल…… क्या है काल ? सर्वाहारी ? सर्वभक्षी ? मानवातीत, देवातीत ? अभेद्य, दुर्जय और निरंकुश ? क्या है यह ? क्यों है यह ? किसके लिए है यह ? कैसा है यह ? कब से है यह ? कब तक रहेगा यह ? श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा कि जो इस कालचक्र को जानते हैं वे ही वास्तव में सब कुछ जानते हैं। क्या वास्तव में हम सब जानते हैं ? क्या आप जानते हैं, क्या मैं जानता हूँ ? नहीं.. शायद नहीं…। क्या हमारे लिए जो समय है, वह आपके लिए भी है ? क्या सच में ऐसा है ? पशु पक्षी के लिए भी वही समय होता है ? क्या वास्तव में ? एक मच्छर के लिए जीवन के समय की क्या परिभाषा है ? शायद 2 या तीन महीने। क्या आपके लिए भी जीवन के समय की वही परिभाषा है ? पुनः विचार कीजिये। क्या वास्तव में समय सबों के लिए समान है ?

परिवर्तन ही समय है। यदि परिवर्तन न हो तो समय का मान नष्ट हो जायेगा। शरीर का बढना, बूढा होना समय है। पृथ्वी का घूमना समय है। मेरा लिखना, आपका पढ़ना समय है। सूक्ष्म से सूक्ष्मतम परिवर्तन समय है। ब्रह्मा से लेकर अमीबा तक का परिवर्तन समय है। परिवर्तन उसके साथ होता है, जो नश्वर है। और ईश्वर को छोड़कर यह सबों पर लागू होता है। क्योंकि वह अविनाशी और अपरिवर्तनीय है। श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं और उपनिषदों में भी वर्णन है कि जिससे सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ, फिर भी जिसमें कोई कमी (परिवर्तन का एक प्रकार) नहीं आई, एवं बाद में जिसके अंदर पूरी सृष्टि समाहित हो जायेगी फिर भी जिसमें कोई बढ़ोत्तरी (परिवर्तन का एक प्रकार) नहीं होगी और पहले भी जिसके साथ उसकी इच्छा से ही ऐसा हुआ है और आगे भी होगा, वही सबों में व्याप्त तत्व ईश्वर है। वही कालातीत है, वही महाकाल है, वही कालाभेद्य कालजित् और कालेश्वर के नाम से विख्यात है जिसका नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं।

शरीर में रहने से ही समय का ज्ञान होता है। इस संसार में पांच तत्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी), उनकी पांच तन्मात्रा (शब्द, गंध, रूप, रस एवं स्पर्श), उनसे जुडी पांच ज्ञानेंद्रिय (कान, नाक, आँख, जिह्वा एवं त्वचा), पांच कर्मेन्द्रिय (हाथ, पैर, लिंग/योनि, गुदा और उदर और किसी किसी के मत से हृदय) चार अपरतत्व (मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार) के साथ एक आत्मा (कुल 24 तत्व के साथ 25वां तत्व) होती है। इसमें आत्मा (जीव) को ब्रह्म (पुरुष/शिव) का अंश तथा बाकी को माया (प्रकृति/शक्ति) का अंश माना गया है। इन चौबीस तत्वों के संयोग से पांच प्रकार के कोशों की रचना होती है जिनकी प्रधानता से तीन प्रकार के शरीरों की रचना होती है, जिन्हें काल के भी तीन प्रमुख प्रकार संचालित करते हैं।

पहला प्रकार है भौतिक शरीर, जिसमें पृथ्वी में रहने वाले जीव निवास करते हैं। यह अन्नमय तथा प्राणमय कोष से संचालित होता है। अर्थात् इसे कार्य करने के लिए अन्न और वायु की आवश्यकता होती है। इसे जो समय प्रभावित करता है, उसे सौर काल या मानव समय कहा जाता है जो सूर्य तथा चंद्रमा की गति पर आश्रित होता है। इसमें मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्र की केंद्रीकृत ऊर्जा काम करती है।

दूसरा प्रकार है सूक्ष्म शरीर जो इस भौतिक शरीर के अंदर होता है तथा जिसमें अंतरिक्ष, ऊपर के तीन लोक (स्वर्ग, महः और जनः), तथा नीचे के पांच लोक (अटल, वितल, सुतल, तलातल, महातल) के जीव (देवता, देवमानव, दिव्य ऋषि, पितृगण, दैत्यगण) तथा नर्क के प्राणी (प्रेत, ब्रह्मराक्षस, वेताल, मारीच, डाकिनी आदि) रहते हैं। जब किसी भी मानव या धरती के जीव की मृत्यु होती है तो उसका भौतिक शरीर छूट जाता है और उसके अंदर का यह सूक्ष्म शरीर जागृत हो जाता है। इसमें अपार शक्तियां छिपी होती है। योगीजन हालांकि भौतिक शरीर में रहते हुए ही इसे जागृत करके सिद्धियों का लाभ लेते हैं। यह मनोमय और विज्ञानमय कोश से संचालित होता है। अर्थात् इसे कार्य करने के लिए अपार मानसिक बल और विशिष्ट ज्ञानयुक्त प्रणाली की आवश्यकता होती है। इसे जो समय प्रभावित करता है, उसे दिव्य काल या दैवी + पैतृक + आर्ष + आसुरी समय कहा जाता है। इसमें मणिपुर तथा अनाहत चक्र की केंद्रीकृत ऊर्जा काम करती है।

तीसरा प्रकार है कारण शरीर जो सूक्ष्म शरीर के अंदर होता है तथा जिसमें ऊपर के उच्चतम लोक (तपः, सत्यम्) तथा नीचे के निम्नतम लोक (रसातल, पाताल) के जीव (वासुकि आदि सर्प, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, ऋभु आदि देवगण, मय आदि दैत्य) निवास करते हैं। यह आनन्दमय कोश से संचालित होता है। अर्थात् इसे कार्य करने के लिए केवल आत्मबल की आवश्यकता है। इसे भी सूक्ष्म शरीर की भांति अलौकिक सिद्धियां प्राप्त होती हैं तथा यह भी दिव्य काल के द्वारा ही प्रभावित होता है। इसी “कारण शरीर” के अंदर ही आत्मा निवास करती है। इसमें विशुद्ध और आज्ञा चक्र की केंद्रीकृत ऊर्जा काम करती है।

इसके अलावा एक शरीर और है, जिसका कोई भौतिक तत्व से सम्बन्ध नहीं, इसे केवल विशुद्ध ब्रह्मानन्द आधारित सहस्रार की ऊर्जा संचालित करती हैं। यह असीमित है, अपार है, अनन्त है और अव्यक्त है। इसे महाकारण शरीर कहते हैं। जब निर्गुण ब्रह्म लीला हेतु सगुण शरीर धारण करते हैं तो उस शरीर को महाकारण कहते हैं इसका प्रयोग ईश्वर के केवल कुछ विशिष्ट सगुण रूप ही कर सकते हैं। जैसे भूमापुरुष नारायण, महाकाल सदाशिव, महागणपति, महासूर्य, राजराजेश्वरी त्रिपुरसुंदरी एवं परिपूर्णावतार श्रीकृष्ण आदि। एवं सृष्टि की रचना हेतु इसे सर्वोच्च जीव यानी पितामह ब्रह्माजी को भी दिया जाता है। इस शरीर की शक्ति अपार, अकल्पनीय और अजेय है। इसे जो काल प्रभावित करता है, वह ब्राह्मी काल कहलाता है।